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स्व० रामनारायण अग्रवाल

श्रद्धेय पूज्य संस्थापक जी स्व० रामनारायण अग्रवाल का आविर्भाव सन् 1931 को प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में बुलन्दशहर जनपद के हसनपुर गांव में हुआ था। आपके पिता स्व० लाला रेवती शरण अग्रवाल एक संभ्रान्त जमींदार थे। माँ स्व० कमला देवी साध्वी, कृष्ण भक्त महिला थीं। छः भाई व तीन बहनों में आप अपनी माँ की चतुर्थ सन्तान थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा बुलन्द शहर, मेरठ में हुई। किशोर वय से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गये। इनकी निष्ठा, कर्मठता एवं लगनशीलता के चलते इन्हें शाखा के मुख्य शिक्षक का दायित्व मिला। भारत सरकार के पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ० मुरली मनोहर जोशी आपकी शाखा के स्वयंसेवक थे। शिक्षा प्राप्ति के उद्‌देश्य से आप कानपुर आ गये। जहाँ हाईस्कूल से एम. ए. तक की शिक्षा पूरी की। अध्ययन के साथ-साथ आपने कानपुर नगर में संघकार्य के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया उस समय उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री रामप्रकश गुप्त कानपुर महानगर प्रचारक थे। महानगर के प्रख्यात शिक्षा शास्त्री तथा शिक्षा क्षेत्र के पुरोधा मा० बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह तथा तत्कालीन कानपुर विभाग के विभाग प्रचारक वर्तमान में विश्व हिन्दू परिषद के अन्तर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष मा० अशोक जी सिंघल की पारखी दृष्टि ने आपके व्यक्तित्व को जाँचा, परखा और वहाँ पर इनकी लगन, निष्ठा, कर्मठता तथा कार्यशैली से प्रभावित होकर सन् 1961 में जब सरस्वती शिशुमन्दिर की कानपुर में योजना बनी, तो आपको तिलक नगर शिशु मन्दिर में संस्थापक प्रधानाचार्य का गुरुतर भार सौंपा गया। इस प्रकार ये भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित शिक्षा जगत में प्रविष्ट हुए तब से लेकर आज तक इनका जीवन दीप निरन्तर जलता हुआ शिक्षा क्षेत्र में प्रकाश बिखेर रहा है।



आप हिन्दी के प्रचार-प्रसार में निरन्तर क्रियाशील रहे तथा इसके लिए हिन्दी प्रचारिणी समिति, कानपुर उ. प्र. के बैनर पर आपको प्रतिष्ठित (सारस्वत सम्मान) सम्मान आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री जी द्वारा बी. सत्यनारायण रेड्डी जी की उपस्थिति में प्रदान किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्राप्त गुणों सहजता, सरलता, सादगी, कर्म के प्रति निष्ठा, सच्चाई, ईमानदारी तथा अन्याय के प्रति प्रतिकार की भावना आप में कूट-कूट कर भरी थी। "सादा जीवन उच्च विचार " की उक्ति आप पर अक्षरशः सत्य घटित होती थी । उच्चादर्शों से युक्त सादा जीवन कैसे जिया जाये, आपका जीवन इसकी मिसाल था। इन्हीं गुणों के चलते आप गाँधी वध के उपरान्त आपात काल में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा तो जेल गये। भारतीय संस्कृति से अनुप्राणित अनुभवों को मूर्तरूप देने के उद्‌देश्य से प्रेरित होकर ही आपने सन् 1968 में सरस्वती ज्ञान मन्दिर शिक्षा संस्थान की स्थापना की। जिसके अन्तर्गत यह विद्यालय चल रहा है। आप संगठन शास्त्र के कुशल नियोजक थे। व्यवस्था एवं नियोजन आप की विशेषता थी। स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान आपकी थाती थी। इसी से प्रेरित होकर अपने बल बूते पर कुछ कर दिखाने की तमन्ना से अभाव की जिन्दगी में भी सादा जीवन व्यतीत करते हुए, शून्य से प्रारम्भ कर इन्होंने जिस प्रकार ज्ञान मन्दिर को आगे बढ़ाया, यह इनके कुशल संगठन एवं नियोजकता का ही परिणाम था। अल्प आय में भी व्यवस्थित जीवन जीने की कला में आप सिद्धहस्त थे। बच्चों के बीच में घुल-मिल जाना आपका स्वभाव था। अपने इसी स्वभाव के कारण वह विद्यालय के छात्रों के अन्तर्मन की बात निकलवा लेते थे तथा सभी अपनी समस्यायें उनके समक्ष बेहिचक रखते थे। अस्वस्थता के समय चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त अनियमितताओं एवं उपेक्षाओं से व्यथित होकर आप जनसामान्य के निमित्त एक चिकित्सालय तथा विद्यालय परिसर में मन्दिर निर्माण कराना चाहते थे। किन्तु पूज्य पिता जी की अन्तिम इच्छा पूर्ण न हो सकी और वे 30 जनवरी सन् 2001 मंगलवार की बसन्तपंचमी के दिन ब्रह्मलीन हो गये।