हमारा लक्ष्य
संस्कार क्षम शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है, किन्तु वर्तमान शिक्षा में संस्कारों की उपेक्षा है। नैतिकता, सत्यनिष्ठा तथा आध्यात्मिकता से हीन शिक्षा के कारण अस्थिरता, अशान्ति, शोषण, उत्पीड़न तथा भ्रष्टाचार राष्ट्र की नियति बन गए हैं। यघपि अनेक क्षेत्रों में प्रगति हुई है जिससे राष्ट्र को सम्मान मिला है, किन्तु इस सुदीर्घ काल में जो विकास परिणाम अपेक्षित थे, वे नहीं आ सके। बालक हमारी आशा का केंद्र है। वही हमारे देश, धर्म एवं संस्कृति का रक्षक है। उसके व्यक्तित्व के विकास में हमारी संस्कृति और सभ्यता का विकास संनिहित है। आज का बालक ही कल का कर्णधार है। बालक का नाता भूमि एवं पूर्वजों से जोड़ना, यह शिक्षा का सीधा, सरल तथा सुस्पष्ट लक्ष्य है। शिक्षा और संस्कार द्वारा हमें बालक का सर्वांगीण विकास करना है। शिक्षा और संस्कार हर बालक का जन्म सिद्ध अधिकार है। बालक के इसी अधिकार की अभिव्यक्ति हमारे पूर्वजों ने "माता गुरु:" इस बोध वाक्य से की थी अर्थात शिक्षा व संस्कार की व्यवस्था पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व है। हमने वर्तमान में परिवार व समाज दोनों की भरपूर अवहेलना की है। जिस शिक्षा व संस्कारों का दायित्व प्रत्येक ग्रहस्थाश्रयी परिवार का है, उसका दायित्व भी हम विद्यालयों को सौंपना चाहते हैं। हमारा समाज चाहते हुए अथवा न चाहते हुए, कतिपय अत्यन्त प्रभावी परिवर्तनों की लहरों से उद्वेदलित हो रहा है। ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, इलेक्ट्रानिक एवं तकनीकी प्रौघोगिकी का तीव्रतम विकास , कम्प्यूटर की चमत्कारिक भूमिका तथा मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने वर्तमान जीवन शैली को पूर्णतया बदल डाला है। परिणाम यह हुआ है कि हमारे आचार-विचार, जीवन मूल्य बदल गए हैं। इन बदले हुए गतिशील सन्दर्भों में हमारे विद्यालयों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि विद्यालयों पर ही समाज की व राष्ट्र की आशा-आकांक्षाओं के अनुरूप वर्तमान पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार करने का गुरुतर दायित्व है। आज भारत स्वतंत्र है। स्वतंत्र राष्ट्र में अस्मिता जगाने के लिए ऐसे विद्यालयों की आवश्यकता है जहाँ बालक-बालिकाएँ शिष्ट व्यवहार, मधुर वार्तालाप, व्यवस्था प्रियता, नैतिकता, समाजसेवा एवं राष्ट्र भक्ति का पाठ सीख सकें।